Tour & Guide
PAAP HARNI SAROVAR
मंदार पर्वत के नीचे दक्षिण दिशा में यह सरोवर है। यहीं से पहाड़ पर चढ़ने का रास्ता है। इस सरोवर को पहले मनोहर कुंड कहा जाता था। इसकी उत्तर-पश्चिमी दिशा में एक पत्थर पर अंकित शिलालेख के अनुसार राजा आदित्यसेन की रानी कोण देवी ने इस सरोवर का निर्माण कराया। विदित हो कि गुप्तवंशीय राजा आदित्यसेन 8वीं सदी में मगध का राजा था। शिलालेख के अनुसार यहाँ इस सरोवर का निर्माण कराने के बाद भगवान नृसिंह (नरसिंह) की प्रतिमा स्थापित की। ऐतिहासिक स्रोत बताते हैं कि इस सरोवर में स्नान करने से एक चोल राजा का कुष्ठ रोग खत्म हो गया था। संभावना जताई जाती है कि चोलपुरम से शासन करनेवाला गंगईकोंड चोल की उपाधि से नवाजे गए चोल राजा ही कुष्ठ से ग्रसित थे जिन्हें इस सरोवर ने मुक्ति दी थी। इसी दिन से मकर संक्रांति के अवसर पर इस सरोवर में स्नान-दान की परंपरा आरंभ हुई। इस विषय का ज़िक्र कई विदेशी विद्वानों ने किया है। इस सरोवर के बीच में सन 1999 में लक्ष्मी-नारायण मंदिर का निर्माण कराया गया जो अष्टफलकीय है। इस मंदिर में शेषशैय्या पर विराजमान देव विष्णु की प्रतिमा है।
LORD MADHUSUDANA
पर्वत के ऊपर व चढ़ाई के बीच में सीता कुंड नामक इकलौते सरोवर के निकट पत्थर काटकर एक विशाल सिर बनाया गया है। यह भगवान विष्णु के एक रूप मधुसूदन की अर्द्धनिर्मित प्रतिमा है। इस सिर की ऊंचाई लगभग 15 फीट है और चेहरे का व्यास लगभग 22 फीट है। विलियम शेरविल ने सन 1851 में बताया है कि अगर यह प्रतिमा पूरी बनाई जाती तो यह लगभग 53 फीट (16.15 मीटर) का होता। इतनी बड़ी मोनोलिथ निर्मित मूर्ति बिहार में कहीं नहीं है। अगर अनुपात में देखा जाए तो कर्नाटक के श्रवणबेलगोला के गोमतेश्वर बाहुबली की मूर्ति 57 फीट (17.37 मीटर) की है। इस मूर्ति के चेहरे के भाव निर्मल हैं जैसा किसी असुर का नहीं होता। लोग अज्ञानता में इस मूर्ति शिल्प को असुरराज मधु का सिर कहते हैं। यह मधु असुरों का राजा था और किसी काल में भगवान विष्णु के अंश से बना था मगर आसुरी प्रवृत्ति के कारण देव विष्णु ने इसका सिर काट दिया था और इसी पर्वत के नीचे दबा दिया और स्वयं इस पर्वत पर चढ़कर बैठ गए। पुराणों में वर्णित है कि तब से वे इसी पर्वत पर निवास करते हैं।
LAKHDEEPA TEMPLE
दीपावली के दिन इस दीप मंदिर में लाखों दीपक जलाने की परंपरा थी। यहाँ जलाने के लिए एक घर से एक ही दीपक लाने की परंपरा थी। अब इस मंदिर का अवशेष ही बचा है लेकिन दीपक जलाने के लिए बड़ी संख्या में यहाँ ताखों का निर्माण किया गया था। सिर्फ इस मंदिर ही नहीं वरन पास के दो मंदिरों और इसकी लंबी-चौड़ी चहरदीवारी में भी ऐसे अनगिनत ताखे मौजूद हैं। ऐतिहासिक सूत्र बताते हैं कि यहाँ पहले एक विशाल नगर था जिसे 'वालिशा गर' के रूप में जाना जाता था। यह दीप मंदिर इसी सभ्यता का हिस्सा था। सम्पूर्ण प्राचीन भारत में लाखों दीपक एक मंदिर में जलाने की परंपरा इसके अलावे आज तक ज्ञात नहीं है। अभी इस मंदिर के टूटे-फूटे अंश देखे जा सकते हैं। इसका निर्माण ईंटों-मोर्टारों और पत्थर के सुंदर स्तंभों से किया गया है। पत्थर के स्तंभों को ढांचों से जोड़ने के लिए लोहे के चौकोर सरिया (रॉड) के अंशों का उपयोग किया गया था। खुले आसमान में रखे होने के बावजूद जिनमें अब भी जंग नहीं लगे हैं। अब भी यहाँ दीपावली की रात दीपक जलाए जाते हैं।
CHOLA KING’S RESIDENCE
लखदीपा मंदिर के पास ही पत्थर की एक मंज़िली इमारत है जो कृत्रिम टीले पर बनी है। इसकी दीवार 6 फीट चौड़ी है। इसमें पत्थर से बनाए गए सुंदर रोशनदान भी हैं। तीन कमरों व एक मध्य प्रशाल से यह बना है। इसके मध्य प्रशाल की संरचना बताती है कि यह किसी राजा का छोटा-सा दीवाने आम होगा जहां कुछ खास लोगों के आने की अनुमति ही होगी।
इसे आजकल 'नाथ मंदिर' कहा जाता है। सन 1810 में जब इस क्षेत्र का सर्वे करने फ्रांसिस बुकनन आए तब यहाँ उन्होंने नाथ संप्रदाय के एक योगी अंतिकनाथ के शिष्यों को रहते देखा था। बीसवीं सदी के 5वें दशक के बाद यह ढांचा शैक्षणिक संस्था 'मंदार विद्यापीठ' के अधीन रहा। इस वक़्त इसके आसपास तोड़फोड़ और निर्माण से इसे क्षति पहुंची फिर स्थानीय जमींदार के वंशजों ने भी इसमें निर्माण कराकर इसे क्षतिग्रस्त किया। कई इतिहासकारों ने इसे गंगईकोंड चोल साम्राज्य के राजा का घर बताया है जिनकी राजधानी दक्षिण भारत के तमिलनाडु के चोलपुरम में थी। गंगा के दक्षिणी भाग तक उन्होंने साम्राज्य का विस्तार किया था।
KAPILI GAAY
समुद्र मंथन से 14 रत्न प्राप्त हुए। इसमें से एक कामधेनू नामक गाय भी थी। इसी कामधेनु का मंदिर पर्वत से 1 किलोमीटर पूरब दिशा में है। यहाँ एक ही पत्थर को काटकर बनाई गई कामधेनू नामक गाय के थन से दो बछड़े लगे हुए हैं। इसे कपिल मुनि की गाय भी कही जाती है। यहाँ कुछ और भी मंदिर हैं जिनमें शिव और पार्वती के प्रमुख हैं। यह जगह पुरातात्विक संपदाओं से भरा पड़ा है। यह गाय साढ़े पाँच फीट लंबी और 5 फीट व्यास की है। इसकी गर्दन पर एक माला
उकेरी गई है। इसके बारे में विष्णु पुराण में कहा गया है