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MANDAR
At a Glance
‘समुद्र मंथन’ के प्रसंग से जुड़ा यह पर्वत बिहार प्रांत के भागलपुर से 50 किलोमीटर दक्षिण में और झारखंड के दुमका (संताल परगना) से 60 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। लगभग 7 सौ फीट ऊंचे इस पर्वत का महत्व सनातन धर्म, बौद्ध तथा जैन मान्यताओं में भी होने के कारण इसे पवित्र माना गया है। कहा गया है कि समुद्र मंथन में जिसे धुरी (Churning Object) बनाकर देवता और असुरों ने बासुकी नाग की सहायता से मथा यह वही पर्वत है। यह वही पर्वत है जिनके ऊपर भगवान विष्णु का मंदिर था।
इस पर्वत का वर्णन वेद, रामायण, महाभारत और पुराणों में मिलता है। कालिदास की कृतियों में भी इसका वर्णन है। ‘विष्णु पुराण’ (वृहद) के आधार पर इसकी पहचान की गई है।
इसका महत्व इतिहास और पुरातत्व के दृष्टिकोण से अधिक है। यहाँ पूरे पर्वत पर, तालाबों तथा गुफाओं में उकेरे गए शिल्प और शिलालेख महत्वपूर्ण हैं। पत्थर और प्राचीन ईंटों से बनाए गए दर्जनों मंदिरों के अपभ्रंश पर्वत के आसपास लंबी दूरी तक बिखरे हुए हैं।
प्राचीन काल में यहाँ 88 तालाब होने का वर्णन मिलता है। इनमें अधिकतर अब भी मौजूद हैं। सबसे बड़ा नगाड़ा पोखर अब भी है जिनमें वैदिक पूजा के साक्ष्य मिलते हैं। यहाँ गंध शालि नामक सुगंधित धान की खेती होती थी जो भगवान बुद्ध को बहुत पसंद थे।
पर्वत के मध्य भाग में पत्थर में विष्णु के मधुसूदन रूप का एक विशाल सिर खुदा हुआ है। यह प्रतिमा अपने तरह का अनूठा है। मोनोलिथ से निर्मित इस प्रतिमा का सिर 6 फीट 7 इंच है। अगर इस सम्पूर्ण प्रतिमा का
निर्माण होता तो यह लगभग 54 फीट होता लेकिन इसे अधूरा छोड़ दिया गया। सम्पूर्ण बिहार में इस कद की कोई प्रतिमा नहीं है।
मंदार के नीचे कुछ दूरी पर कामधेनू का एक मंदिर है जहां एक मंदिर में लाल पत्थर की गाय बनी है जिसमें दो बछड़े दूध पी रहे हैं। इसे कपिल मुनि की गाय या कामधेनू भी कहते हैं जो समुद्र मंथन से प्राप्त हुई थी।
मंदार क्षेत्र के विकास, इसके लिए आम लोगों में जागृति लाने तथा मानव, विरासत व पर्यावरण सेवा को लक्ष्य बनाकर सन 1984 में एक गैर-राजनीतिक प्लेटफॉर्म को 'मंदार विकास परिषद' का रूप दिया गया। तब से यह संस्था मंदार के विकास के लिए प्रतिबद्ध है। इस संस्था ने केंद्र व राज्य सरकारों से नियमित पत्र लिखा तथा हरेक मंचों पर आवाज़ उठाकर मंदार को सरकारी पर्यटन सूची में डालकर विकास हेतु योजनाएँ स्वीकृत किए जाने की मांग की। साथ ही रेल, सड़क व सुरक्षा को भी दुरुस्त करने की मांग की। पौराणिक मन्द्राचल पर्वत या मंदारगिरि पर चढ़ने के लिए रोपवे (रज्जू मार्ग) के लिए भी अथक प्रयास किए। इसका काम अब सम्पूर्ण हो गया।
इतिहास को लेकर यहाँ भी थी 'जितने मुंह, उतनी बातें। इसके कारण ऐतिहासिक-धार्मिक मुद्दे गौण होने से इस क्षेत्र को बहुत क्षति हुई। लोगों की अज्ञानता का फायदा उठाकर मूर्ति तस्करों की पौ-बारह रही। प्राचीन नगर-सभ्यता के पुरावशेष लोग उठाकर ले गए और यह क्षेत्र सूना पड़ता गया। बावजूद इसके, मिट्टी के गर्भ में यहाँ अब भी पुरावशेष दबे पड़े हैं। इन सबों के रहस्योद्घाटन के लिए 'मंदार विकास परिषद' ने बीड़ा उठाया और इसे अंजाम तक पहुंचाने की प्रत्याशा में अनवरत है।
मंदार पर्वत के कुछ पुरावशेष इस बात को बयान करते हैं कि कई मायनों में ये पूरे प्रांत और देश में प्राथमिकता लिए हुए हैं। पर्वत पर भगवान मधुसूदन के सिर की बनाई गई भित्ति-शिल्प देशभर की विशाल मूर्तियों में से तीसरा स्थान रखती हैं। लखदीपा मंदिर में दीपावली के दिन एक-एक घर से एक-एक दीपक लाकर लाखों दीपक जलाने की परंपरा तो सम्पूर्ण विश्व में पहली थी। इसके अवशेष आज भी इसकी गाथा बाँचते हैं। ज्ञात हो कि भगवान बुद्ध और मगध के सम्राट बिंबिसार का पसंदीदा चावल 'गंध शल्लि' की उपज यहीं होती थी जिसके पुरातात्विक प्रमाण भी यहाँ मौजूद हैं। भगवान बुद्ध के प्राथमिक 4 अर्हतों (जो आगे चलकर 16 हो गए) में से एक सुपिंदोला भारद्वाज का निवास यहीं था जहां वे अपने हजारों शिष्यों के साथ रहते थे। ऐसे तथ्यों को साक्ष्य सहित प्रस्तुत करने का जिम्मा भी 'मंदार विकास परिषद' ने उठाया।
